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श्रीबाण माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है ये परिवार

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श्री बाण माता का मुख्य मंदिर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित है। ब्राह्मणी माता, बायण माता और बाणेश्वरी माता जी के नाम से भी जानते है। राजपूत, माली, नाई समेत कई समाज में विभिन्न गोत्रों के लोग माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है।

जगदीश सैन

कुलदेवी श्री बाण माता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी सोजत रोड़, पाली निवासी पीटीआई जगदीश सैन ने सैन इंडिया से शेयर की। उनके मुताबिक सैन समाज में कुछ परिवार ऐसे है जो बाण माता को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है।

बाण माता का मुख्य मंदिर चित्तौड़गढ़ में विजय स्तंभ से थोड़ी दूरी स्थित कालिका मंदिर के नजदीक है। बाण माता के इस मंदिर के पास अन्नपूर्णा माता का मंदिर भी है। श्री बाण माताजी के मंदिर राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल आदि में भी स्थित है।

बाणमाता मेवाड के सूर्यवंशी गहलोत सिसोदिया (राजपूत) राजवंश की कुलदेवी है। सैन समाज में गहलोत गौत्र के कई परिवार भी उन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।

मान्यता के अनुसार, बाण माताजी का पुराना स्थान गुजरात में गिरनार में था। कालान्तर में वे चित्तौड़ पधारी थी। इसके पीछे एक कथा है। वर्षो पूर्व चित्तौड़ के महाराणा ने गुजरात पर आक्रमण कर गुजरात को जीत लिया। बाद में वहां राजा ने अपनी बेटी का विवाह महाराणा से कर दिया। राजकुमारी बाण माता की अनन्य भक्त थी। विवाह के बाद माँ बाण माता भी राजकुमारी के साथ चित्तौड़गढ़ पधार गयी। गिरनार में आज भी माता का प्राचीन मंदिर है।

” बाण तू ही ब्रह्माणी , बायण सु विख्यात ।

सुर संत सुमरे सदा , सिसोदिया कुल मात ।।”

बाण माता की पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के अनुसार हजारों साल पहले बाणासुर नाम का राक्षस था। बाणासुर भगवान शिव का अनन्य भक्त था। शिवजी के आशीर्वाद से उसे हजारों भुजाओं की शक्ति प्राप्त थी। शिवजी ने उससे और भी कुछ मांगने को कहा तो बाणासुर ने कहा की आप मेरे किले के पहरेदार बन जाओ।

यह सुन शिवजी को बडी ही ग्लानि और अपमान महसूस हुआ लेकिन, उन्होंने उसको वरदान दे दिया और उसके किले के रक्षक बन गए। बाणासुर परम बलशाली होकर सम्पूर्ण भारत और पृथ्वी पर राज करने लगा और उससे सभी राजा और कुछ देवता तक भयभीत रहने लगे। एक दिन बाणासुर को शिवजी से युद्ध करने की सनक चढ़ गई। शिवजी ने काफी समझाया लेकिन वह नहीं माना। उसने शिवजी से एक और वर प्राप्त था कि वे कृष्ण से युद्ध में उसका साथ देंगे और उसके प्राणों की रक्षा करेंगे।

समय बीतता गया और श्री कृष्ण ने द्वारिका बसा ली थी। उधर बाणासुर के एक पुत्री थी जिसका नाम उषा था। बाणासुर ने उषा का विवाह किसी तुच्छ राजकुमार से नहीं हो जाये, इसलिये किले में नजरबंद कर दिया। इधर, उषा को स्वप्न में दिखाई दिए एक युवक से प्रेम हो गया। उसने उसका चित्र सखी चित्रलेखा से बनवाया। चित्रलेखा ने बताया की यह राजकुमार तो श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का है।

उषा-अनिरुद्ध मंदिर

बाद में दोनों ने ओखिमठ नामक स्थान(केदारनाथ के पास) विवाह किया जहां उषा-अनिरुद्ध नाम से एक मंदिर आज भी है। क्रोधित बाणासुर से अनिरुद्ध और उषा को कैद कर लिया। जब श्रीकृष्ण और बलराम को इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने बाणासुर पर हमला कर दिया। भयंकर युद्ध हुआ। बाणासुर हारने लगा तो उसने मदद के लिये शिव जी का आह्वान किया। वचनबद्ध शिवजी श्री कृष्ण और उनकी सेना से युद्ध करने लगे। इस भयानक युद्ध से ब्रह्माण्ड खतरे में पड़ गया। सभी देवता मां दुर्गा के पास पहुंचे। माता ने सभी को शांत किया। बाद में अनिरुद्ध और उषा का विवाह हो गया।

इधर, बाणासुर को एक बार फिर अहंकार आ गया। उसे लगा कि शिव के साथ अब कृष्ण यानि भगवान विष्णु भी उसके साथ है। राजाओं के परामर्श से ऋषि-मुनियों ने यज्ञ किया। यज्ञ अग्नि से माँ पार्वती जी एक छोटी सी कुंवारी कन्या के रूप में प्रकट हुयीं और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं से वर मांगने को कहा। तब सभी राजाओं ने देवी माँ से बाणासुर से रक्षा की प्रार्थना की। माता जी ने सभी राजाओं-ऋषि मुनियों और देवताओं को बाणासुर से मुक्ति दिलाने का भरोसा दिलाया।

इसके बाद मां भारत के दक्षिणी छोर पर जा कर तपस्या में बैठ गयीं। दरअसल यह यह लीला बाणासुर को किले से दूर लाने की थी ताकि वह शिवजी से उसकी रक्षा नहीं कर सके। यहां वह बायण माता के नाम से जानी गई। आज भी उस जगह पर बायण माता को दक्षिण भारतीय लोगों द्वारा कुंवारी कन्या के नाम से पूजा जाता है और उस जगह का नाम भी कन्या कुमारी है।

जब पार्वती जी के अवतार देवी माँ बड़ी हुई तो उनकी सुन्दरता से मंत्रमुग्ध हो कर शिवजी उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। विवाह की तैयारियां होने लगी। तभी नारद मुनि ने सोचा यह विवाह अनुचित है। बायण माता तो पवित्र कुंवारी देवी हैं जो पार्वती जी का अवतार होने के बावजूद उनसे भिन्न हैं, यदि उन्होंने विवाह किया तो वे बाणासुर का वध नहीं कर पाएंगी। बाणासुर केवल परम सात्विकदेवी के हाथो ही मृत्यु को प्राप्त हो सकता था।

तब नारद जी ने एक चाल चली। विवाह का मुहुर्त सूर्योदय से पूर्व था। शिवजी रात को कैलाश से बारात लेकर निकले थे। रास्ते में नारद मुनि मुर्गे का रूप धरा और जोर जोर से बोलने लगे। शिवजी को लगा की सूर्योदय होने वाला है और अब विवाह की घडी निकल चुकी है। अतः शिवजी विवाह स्थल से 8-10 किलोमीटर दूर ही रुक गए। उधर, देवी मां दक्षिण में त्रिवेणी स्थान पर शिवजी का इंतज़ार करती रह गयी। जब शिवजी नहीं आये तो माताजी क्रोद्धित हो गयीं। उन्होंने जीवन पर्यन्त सात्विक रहने का प्रण ले लिया।

बाणासुर को माताजी की माया का पता चला तब वह खुद माताजी से विवाह करने को आया किन्तु देवी माँ ने माना कर दिया। जिस पर बाणासुर क्रोधित हो उठा। उसने युद्ध के बल पर देवी माँ से विवाह करने की ठानी। जिसमे देवी माँ ने प्रचंड रूप धारण कर उसकी पूरी दैत्य सेना का नाश कर दिया और अपने चक्र से बाणासुर का सर काट के उसका वध कर दिया।

भादरिया माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है ये

मृत्यु पूर्व बाणासुर ने परा-शक्ति के प्रारूप उस देवी से अपने जीवन भर के पापों के लिए क्षमा मांगी और मोक्ष की याचना करी जिस पर देवी माता ने उसकी आत्मा को मोक्ष प्रदान कर दिया। इस प्रकार देवी माँ को बाणासुर का वध करने की वजह से बायण माता, बाण माता या ब्रह्माणी माता के नाम से भी जाना जाता है।

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जमवाय माता को सैन समाज के कई परिवार मानते है कुलदेवी

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जमवाय माता भगवान राम के पुत्र कुश के वंश कछवाहा की कुलदेवी है। सैन समाज में कुछ परिवार ऐसे हैं जो जमवाय माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है।

अयोध्या के राम जन्म भूमि प्रकरण में श्रीराम के वंशज का मामला देशभर में चर्चित है। जयपुर के पूर्व राजघराने की ओर से श्रीराम का वंशज होने का दावा गया गया है। एमपी और पूर्व राजपरिवार की सदस्य दीया कुमारी ने पोथीखाना में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर यह दावा किया है। उन्होंने कहा कि जयपुर राजपरिवार की गद्दी भगवान राम के पुत्र कुश के वंशजों की है। भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज होने से ढूंढाड़ के राजा कछवाहा कहलाने के साथ राम की 309वीं पीढ़ी में मानते हैं।

यह जानकारी का उल्लेख इसलिये किया गया है कि जमवाय माता मुख्यत: कछवाहा वंश की कुलदेवी है। आज भी राजपरिवार के सदस्य यहां ढोंक लगाने जाते है। ऐसा नहीं है कि जमवाय माता केवल कछवाहा वंश की कुलदेवी है। दूसरी जातियों में कई परिवार ऐसे हैं जो माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है। सैन समाज में भी कई परिवार ऐसे हैं जो जमवाय माता को कुलदेवी मानते है। खासकर जयपुर, दौसा, अलवर में रहने वाले सैन समाज के कई परिवारों कुलदेवी जमवा माता या जमवाय  माता है। जयपुर निवासी महेश कुमार सैन ने बताया कि उनका गोत्र आमेरिया अजमेरिया है। उनके परिवार में  माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है।

जमवाय माता का मंदिर कहां है

जमवाय माता का मंदिर जयपुर शहर से करीब 55 किमी दूर है। मंदिर जयपुर कई साल तक प्यास बुझाने वाले जमवा रामगढ़ बांध से मात्र एक​ किलोमीटर दूर है। आसपास पहाड़ियां है और यह जमवा रामगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में आता है। बारिश के दिनों में यहां आसपास झरने बहते है। इन दिनों यहां गोठ और पिकनिक के आयोजन होते है। यहां तक पहुंचने के जयपुर से प्राइवेट और सरकारी बसें उपलब्ध है। जयपुर से नारायणी धाम, अलवर का एक रास्ता भी जमवा माता मंदिर होकर जाता है। नारायणी धाम के लिये जयपुर से पैदल परिक्रमा का पड़ाव भी यहां होता है। नवरात्रों में यहां दर्शनार्थियों की संख्या ज्यादा रहती है।

जमवाय माता की कथा

जयपुर के नजदीक यह इलाका पहले मांच के नाम से जाना जाता था। एक बार राजा दूल्हाराय ने मांच पर हमला कर मीणों से युद्ध किया। इस युद्ध में वे हार गये और रणभूमि में मूर्छित हो कर गिर पड़े। रात में बुढवाय देवी रणभूमि में आई और दूल्हाराय के सिर पर हाथ फेरा। उनकी मूर्छा टूटी तो माता ने खुद को जमवाय नाम से पूजने और मन्दिर बनवाने का वचन मांगा। दूल्हाराय ने मां को वचन पूरा करने का भरोसा दिलाया। उनकी सेना ​जीवित हो गई और फिर उन्होंने मांच पर हमला बोला। इसमें उनकी जीत हुई। इसके बाद ये मंदिर बनवाया।

यहां के बारे में एक और घटना का भी जिक्र मिलता है। राजा कांकील भी मीणों के साथ युद्ध करते हुए सेना के साथ मूर्छित होकर रणक्षेत्र में गिर पड़े। तब भी जमुवाय माता सफेद धेनु (गाय) के रूप में प्रकट हुई। उन्होंने दूध की वर्षा कर पूरी सेना को जीवित कर दिया। माता ने शत्रु पर विजय प्राप्त कर आमेर बसाने की आदेश दिया।

माता के मन्दिर के गर्भगृह में माता की प्रतिमा के दाहिनी तरफ धेनु एवं बछड़े व बायीं ओर बुढ़वाय माता की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर परिसर में शिवालय एवं भैंरव का स्थान भी है। राजा ने अपने आराध्य देव रामचंद्र एवं कुलदेवी जमुवाय के नाम पर मांच का नाम जमुवाय रामगढ़ रखा गया। जो बाद मे जमुवा रामगढ़ के रूप में जाना जाने लगा।

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सैन समाज के कई परिवारों की कुलदेवी है जीण माता

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जीण माता कई परिवार एवं गोत्रों की कुलदेवी है। सैन समाज में भी कई गोत्र ऐसे हैं जो जीण भवानी को कुलदेवी मानते है। जीण माता मां दुर्गा का रूप है।

जीण माता के दरबार में गोपाल मारवाड़ी और उनकी पत्नी

महाराष्ट्र से सैन समाज के गोपाल मारवाड़ी ने जानकारी दी है कि उनका गोत्र जलवानी है। जलवानी गोत्र के कई परिवार कुलदेवी के रूप में जीण माता को पूजते है। रवि चांगिल के अनुसार, उनके भी परिवार में कुलदेवी के रूप में जीण माता को पूजा जाता है। जीण माता के यूं तो देशभर में कई मंदिर है। प्राचीन और असली मंदिर राजस्थान में है। सीकर में गोरिया से कुछ किमी दूर यह भव्य एवं प्राचीन मंदिर स्थित है।

जयपुर से जीण माता की दूरी तकरीबन 115 किमी है। जबकि प्रसिद्ध खाटू धाम से माता का मंदिर 27 किमी. है। जीण माता से सालासर धाम की दूरी करीब 75​ किमी. है। खाटू श्याम जी, जीण माता और सालासर बालाजी के प्रति गहरी धार्मिक आस्था है। इसी वजह से यहां हर दिन भक्त पहुंचते है। मेेले के मौके पर यहां लाखों भक्त पहुंचते है। जीण माता के मंदिर को लेकर एक मान्यता यह भी है कि यह मंदिर पांडवों ने बनाया था। अज्ञातवास का कुछ समय पांडवों ने यहां बिताया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार, यह मंदिर करीब 1000 साल पुराना है।

माता के चमत्कार की कई कहानियां है। मुगल शासक औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ने का प्रयास किया। उसने अपनी सेना यहां भेज दी।  तभी मधुमक्खियों के झुंड ने मुगल सेना पर हमला बोल दिया। सेना को पीछे हटना पड़ा। इतना ही नहीं औरंगजेब भी बीमार पड़ गया। बाद में उसने माता के दरबार में अखंड जोत जलवाने की व्यवस्था का भरोसा दिलवाया, तब वह ठीक हुआ। उसके समय इस परम्परा का निर्वाह हुआ।

जीण माता की कहानी

जीण माता का असली नाम जयंतीमाला था। जीण अपने भाई हर्ष से बेहद प्रेम करती थी। एक बार जीण और उसकी भाभी के बीच बहस छिड़ गई कि हर्ष उनमें से किसको ज्यादा चाहते है। इसकी परीक्षा के लिये उन्होंने तय किया पानी लाते समय हर्ष सबसे पहले जिसके सिर से घड़ा उतारेंगे, उससे ज्यादा प्रेम करते है। दोनों पानी से भरा घड़ा लेकर घर पहुंचती है। दोनों के बीच विवाद से अनजान हर्ष सबसे पहले अपनी पत्नी के सिर से घड़ा उतारते है। यह देखकर जीण को गुस्सा आ जाता है और सब कुछ छोड़कर काजल पर्वत पहुंच जाती है और वहां देवी तपस्या करने लगती है। हर्ष को जब पूरी बात पता चलती है तो दुख होता है। वह जीण को मनाने जाते है लेकिन, जीण अपनी तपस्या तोड़ने को राजी नहीं होती। ऐसे में हर्ष भी पर्वत पर जाकर भैंरों की तपस्या करने लगते है। जीण माता को देवी रूप और हर्ष को भैंरों पद प्राप्त होता है।

सम्मान पा कर अभिभूत हुये बुजुर्ग और प्रतिभाएं

जीण माता के भक्त

जीण माता के प्रति भक्तों में अगाध श्रद्धा है। माता के भक्त पूरे राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात समेत देश के अधिकांश राज्यों में है। विदेशों में भी माता के भक्त हैं। राजपूत, ब्राह्मण, वैश्य, नाई (सैन) आदि समाजों में कई गोत्र ऐसे हैं जो माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है। जात जड़ूले माता के दरबार में करते है। चैत्र और ​अश्विनी मास के नवरात्रों में यहां आस्था का सैलाब उमड़ता है। जीण माता के भजन, जीण माता की आरती, जीण माता चालीसा से भक्त माता को रिझाते है।

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गलाना गांव में है इस गोत्र की कुलदेवी का प्राचीन मंदिर

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गलाना गांव में  प्राचीन मंदिर आस्था का केंद्र है। यह गांव कोटा में जिला मुख्यालय से करीब 18 किमी दूर स्थित है।

कुलदेवी बांगड़दिया

गलाना गांव लाड़पुरा तहसील में आता है। सांगोद रोड़ पर स्थित इस गांव में बांगड़दिया सती माता का प्राचीन मंदिर है। सैन समाज में बांगडदिया परिवार इस माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है। महावीर सैन बांगड़दिया ने इस बारे में जानकारी दी। कुलदेवी बांगड़दिया सेन विकास समिति के प्रधान महासचिव जगदीश प्रसाद सैन ने बताया कि यह मंदिर सैकड़ों साल प्राचीन है। इसका प्रमाण यहां उपलब्ध शिलालेख है। हालांकि इस शिलालेख पर क्या अंकित है, इसको जानने का प्रयास किया जा रहा है।

जानकारी के अभाव में पहले यहां बहुत कम लोग जा पाते थे। अब इसका प्रचार प्रसार किया जा रहा है ताकि नई पीढ़ी को इस मंदिर के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके। यहां कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते है। सैन समाज के गोत्र बांगड़दिया के अधिकांश परिवार राजस्थान के हाडौती अंचल में है। कोटा, बूंदी, झालावाड़ और बारां जिले हाड़ौती में आते है।

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भादरिया माता को कुलदेवी के रूप में पूजते है ये

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