कई परिवारों में कुलदेवी के रूप में मां नागणेची की पूजा की जाती है। मां नागणेची को नागणेच्या, चक्रेश्वरी, राठेश्वरी तथा नागणेचिया माता के नाम से भी जानते है।
राजस्थान में राठौड़ राजपूतों का गोत्र है लेकिन, कुछ अन्य समाजों में भी यह गोत्र लगाया जाता है। सैन समाज में भी कई परिवार राठौड़ गोत्र लगाते हैं। खासकर बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, पाली, जालौर, बाड़मेर में सैन समाज के कई परिवारों में सरनेम राठौड़ है। राजपूत राठौड़ों की तरह सैन समाज के राठौड़ गोत्रीय ये परिवार भी कुलदेवी के रूप में नागणेची माता को मानते है। जात—जडूले आदि कार्यक्रम मां के दरबार में करते है। बीकानेर से दीनदयाल सैन के अनुसार, उनका गोत्र राठौड़ है और कुलदेवी के रूप में मां नागणेची की पूजा होती है। कुलदेवता के रूप में उनके परिवार में पाबूजी को पूजा जाता है।
नागणेची माता का मंदिर
श्री नागणेची माता के मन्दिर राजस्थान के जालोर, जोधपुर, बीकानेर में भी है। यहां किलों में भी माता के मंदिर है। नागणेची माता का मुख्य एवं प्रसिद्ध मंदिर राजस्थान के नागणा में स्थित है। इस स्थान के नाम पर ही उनका नागणेची हुआ। सूर्यनगरी जोधपुर से 96 किमी. दूर बालोतरा रोड़ पर कल्याणपुरा के पास मां नागणेची का प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर की छटा देखते ही बनती है। यह मंदिर मारवाड़ के राठौड़ राज्य के संस्थापक राव सिन्हा के पौत्र राव धूहड़ (विक्रम संवत 1349-1366) ने बनवाया। मूर्ति भी उनके समय ही स्थापित हुई थी। बाज या चील उनका प्रतीक चिह्न है, जो मारवाड़ (जोधपुर),बीकानेर तथा किशनगढ़ रियासत के झंडों पर देखा जा सकता है। नागणा माता का निवास नीम में माना जाता है। इसलिये उनके भक्त नीम का आदर करते है।
नागणेची माता का इतिहास
नागणेची माता का पूर्व में नाम चक्रेश्वरी था। इस बारे में एक कथा प्रचलित है। एक बार राव धुहड जी ननिहाल गए। वहां अपने मामा का बेडौल पेट देखकर उन्हें हंसी आ गई। उनके मामा को गुस्सा आ गया और उन्होने राव धुहडजी को ताना मारा। उन्होंने कहा तुम मेरा पेट देखकर हंस रहे हो लेकिन, तुम्हारे परिवार को बिना कुलदेवी के देख दुनिया हंसती है। तुम्हारे दादाजी तो कुलदेवी की मूर्ति भी साथ लेकर नही आ सके, तभी तो तुम्हारा कही स्थाई ठोड-ठिकाना नही बन पा रहा है।
यह बात राव धुहड़जी का चुभ गई। उन्होंने मूर्ति लाने का तय किया। उन्हें कुलदेवी के बारे कोई जानकारी नहीं थी। एक दिन वे चुपचाप घर से निकलकर जंगल में चले गए। वहां अन्न जल त्यागकर तपस्या करने लगे। आखिर देवी का हृदय पसीज गया और देवी ने उन्हें दर्शन दिये। माता ने कहा कि वे ही उनके परिवार की कुलदेवी चक्रेश्वरी है। बड़े होने पर तुम मुझे प्राप्त करोगे।
इन गोत्रों में कुलदेवी की रूप में पूजी जाती सच्चियाय माता
पक्षी के रुप साथ आयी
राव धुहड़ जी जब बड़े हुये तो एक बार वे राजपुरोहित पीथड़जी के साथ कन्नौज गए। वहां उन्हें गुरू लुंम्ब ऋषि मिले। उन्होंने धूहड़जी को माता चक्रेश्वरी की मूर्ति के दर्शन कराएं और कहा कि यही तुम्हारी कुलदेवी है। इसे तुम अपने साथ ले जा सकते हो। वे मूर्ति को लेकर रवाना होने लगे तभी कुलदेवी की वाणी गूंजी और कहा, हे पुत्र! मैं तुमरे साथ पक्षी के रूप में चलूंगी। तुम बीच में रुकना मत। जहां रुकोगे, मैं वहीं रुक जाउंगी और आगे नहीं जाउंगी।
कन्नौज से पक्षी रूपी देवी के साथ धूहड रवाना हुये। रास्ते में नागणा पहुंचते ही उन्हें थकान के कारण नींद आ जाती है। थकान में वे माता की बात को भूल जाते है। वे नीम के एक पेड़ के नीचे सो जाते है। जागते है तो देखते है कि माता पक्षी के रूप में नीम के पेड़ पर बैठी है। माता ने उन्हें आगे जाने से मना कर दिया। राव धुहडजी हडबडाकर उठें और आगे चलने को तैयार हुए तो कुलदेवी बोली पुत्र , मैनें पहले ही कहा था कि जहां तुम रूकोगें वही मैं भी रूक जाऊंगी और फिर आगे नही चलूंगी ।अब मैं आगे नही चलूंगी ।
कमर तक ही है मूर्ति
तब राव धूहडजी ने कहा की हें माँ अब मेरे लिए क्या आदेश है? कुलदेवी बोली कि कल सुबह सवा प्रहर दिन चढने से पहले अपना घोडा जहाॅ तक संभव हो वहा तक घुमाना, वहीं मेरा ओरण क्षेत्र होगा। एक बात का ध्यान और रखना, मै जब प्रकट होऊंगी तब तुम ग्वालों से कह देना कि वह गायों को ना हांके। अन्यथा मेरी मूर्ति प्रकट होते होते रूक जाएगी ।
अगले दिन राव धुहडजी ने घोड़ा चारों दिशा में घुमाया। ग्वालों को चुप रहने के लिये कहा। कुछ ही समय बाद अचानक पर्वत पर जोरदार गर्जना होने लगी, बिजलियां चमकने लगी। इसके साथ ही भूमि से कुलदेवी की मूर्ति प्रकट होने लगी। डर के मारे गायें इधर उधर भागने लगी। तभी स्वभाव वश ग्वालों के मुंह से गायों को रोकने के लिए हांक की आवाज निकल गई। मूर्ति भी वहीं रूक गई। केवल कमर तक की ही मूर्ति धरती से बाहर प्रकट हो सकी।
साल में दो बार लगता है मेला
राव धुहडजी ने होनी को नमस्कार किया और उसी अर्ध प्रकट मूर्ति के लिए सन् 1305, माघ वदी दशम सवत् 1362 ई. में मन्दिर का निर्माण करवाया। चक्रेश्वरी माता नागाणा में मूर्ति रूप में प्रकटी, अतः वह नागणेची रूप में प्रसिद्ध हुई। नागाणा स्थित इस मन्दिर में माघ शुक्ल सप्तमी और भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को प्रतिवर्ष मेला लगता है। माता के लापसी, खाजा का भोग लगता है। सप्त धागों को कुंकुम रंजित कर माता का प्रसाद मानकर सभी राखी बांधते हैं।
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